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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
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सुनसान के सहचर

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पत्तीदार साग


साग भाजी का इधर शौक ही नहीं है। आलू छोड़कर और कोई सब्जी यहाँ नहीं मिलती। नीचे के दूर प्रदेशों से आने और परिवहन के साधन न होने से आलू भी महँगा पड़ता है। चट्टी के दुकानदार एक रुपया सेर देते हैं। यों इधर छोटे-छोटे झरने हैं, उनसे जहाँ-तहाँ थोड़ी-थोड़ी सिंचाई भी होती है, किन्तु वहाँ भी साग-सब्जी होने का रिवाज नहीं है। रोज आलू खाते-खाते ऊब गया। सब्जी के बारे में वहाँ के निवासियों तथा दुकानदारों से चर्चा की, तो उन्होंने बताया कि जंगल में खड़ी हुई तरह-तरह की वनस्पतियों में से तीन पौधे ऐसे होते हैं, जिसके पत्तों का साग बनाया जाता है। (१) मोरचा (२) लिंगड़ा (३) कोला। 

एक पहाड़ी को पारिश्रमिक के पैसे दिये और इनमें से कोई एक प्रकार की पत्तियाँ लाने को भेजा। पौधे चट्टी के पीछे ही खड़े थे वह बात की बात में मोरचा की पत्तियाँ दो-चार सेर तोड़ लाया। बनाने की तरकीब भी उसी से पूछी और उसी प्रकार उसे तैयार किया। बहुत स्वादिष्ट लगा। दूसरे दिन लिंगड़ा की और तीसरे दिन कोला की पत्तियाँ इसी प्रकार वहाँ के निवासियों से मँगवायी और बनाई-खायी। तीनों प्रकार की पत्तियाँ एक दूसरे से अधिक स्वादिष्ट लगीं। चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। एक महीने हरी सब्जी नहीं मिली थी, इसे खाकर तृप्ति अनुभव की। 

उधर से पहाड़ी निवासी रास्ते में तथा चट्टियों पर मिलते ही थे उनसे जगह-जगह मैंने चर्चा की कि इतने स्वादिष्ट पत्तीदार साग जब आपके यहाँ पैदा होते हैं, तो उन्हें काम में क्यों नहीं लेते? पत्तीदार साग तो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत लाभदायक होते हैं। उनमें से किसी ने न तो मेरी सलाह को स्वीकार किया और न उन सागों को स्वादिष्ट तथा लाभप्रद ही माना। उपेक्षा दिखलाकर बात समाप्त कर दी। 

सोचता हूँ इस संसार में किसी वस्तु का महत्त्व तभी समझ में आयेगा, जब उसकी उपयोगिता का पता हो। यह तीनों पत्तीदार साग मेरी दृष्टि में उपयोगी थे, इसलिए वे महत्त्वपूर्ण और बड़े स्वादिष्ट थे। इन पहाड़ियों ने इस उपयोगिता को न जाना था और न माना था, इसलिए उनके समीप यह मुफ्त का साग मनों खड़ा था, पर उससे वे लाभ नहीं उठा पा रहे थे। किसी वस्तु या बात की उपयोगिता जाने और अनुभव किये बिना मनुष्य न तो उसकी ओर आकर्षित होता है और न उसका उपयोग करता है। इसलिए किसी वस्तु का महत्त्वपूर्ण होने से भी बढ़कर है उसकी उपयोगिता को जानना और उससे प्रभावित होना। 

हमारे समीप भी कितने ही ऐसे तथ्य हैं, जिनकी उपयोगिता समझ ली जाय, तो उनसे आशाजनक लाभ हो सकता है। ब्रह्मचर्य, व्यायाम, ब्रह्ममुहूर्त में उठना, संध्या-वन्दन, समय का सदुपयोग, सात्विक आहार, नियमित दिनचर्या, व्यसनों से बचना, मधुर भाषण, शिष्टाचार आदि अनेकों तथ्य ऐसे हैं, जिनका उपयोग हमारे लिए अतीव लाभप्रद हैं और इनको व्यवहार में लाना कठिन भी नहीं है, फिर भी हममें से कितने ही इनकी उपेक्षा करते हैं, व्यर्थ समझते हैं और हृदयंगम करने पर होने वाले लाभों से वंचित रह जाते हैं। 

पहाड़ी लोग उपयोगिता न समझने के कारण ही अपने बिल्कुल समीप प्रचुर मात्रा में खड़े पत्तीदार सागों का लाभ नहीं उठा पा रहे थे। इसके लिए उनकी निन्दा करना व्यर्थ है। हमारे समीप भी तो आत्म कल्याण के लिए अगणित उपयोगी तथ्य बिखरे पड़े हैं, पर हम ही कब उनको व्यवहार में लाते और लाभ उठाते हैं? मूर्खता में कोई किसी से पीछे भी क्यों रहे?

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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